Badhti Jansankhya Par Kavita|The Burden of Population
Badhti Jansankhya Par Kavita –बढ़ती जनसंख्या आज भारत और विश्व के लिए एक गंभीर समस्या बन गई है। जनसंख्या का बढ़ना, जहां एक ओर देश की श्रमशक्ति को बढ़ाता है, वहीं दूसरी ओर यह सीमित संसाधनों पर अत्यधिक दबाव डालता है। भारत जैसे विकासशील देश में बढ़ती जनसंख्या के कारण गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं।
बढ़ती जनसंख्या पर कविता |Badhti Jansankhya Par Kavita
1.
विवश हो गई दुनिया मेरी, जीवन हो गया दुर्लभ |
एक कमाए चौदह खाये, दुखी हैं भैया बल्लभ |
हर रोज बढ़ रही आबादी, घटती सारी सुविधाएँ |
लाचार हो गए युवा हमारे, सामने आ खड़ी दुविधाएं |
नहीं है रोजी सामने रोटी, कैसे चलाऊ घर संसार |
डिग्री लेकर मारे फिरता, बेरोजगारी की है बड़ी कतार |
चहुं ओर भुखमरी बीमारी चिंता हर घर जन को है ,
कहाँ से लाऊं रासन पानी दर्द यहाँ हर मन को है |
अब तो जागो प्रकृति बचाओ यह सबकी ज़िम्मेदारी है ,
पेड़, पानी ,खनिज, तेल बचाएं इसी में सबकी समझदारी है |
हम दो हैं जी, दो रहे हमारे, हो गए मिलके चार ,
इससे अधिक बढ़ाओगे तो नर्क हो जाएगा संसार |
रचना- कृष्णावती कुमारी
यह कविता के .वि. एस के काव्यमंजरी पत्रिका में प्रकाशित है |
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शीर्षक: जनसंख्या की मार|Badhti Jansankhya Par Kavita
हर सड़क पे भीड़ है छाई,
सांस भी लेना हो जैसे लड़ाई।
धरती बोझ से है हारी,
जनसंख्या बन गई है लाचारी।
रोज़ नए चेहरे आते हैं,
संसाधन कम पड़ जाते हैं।
सोचो अगर यूँ चलता रहा,
भविष्य के लिए क्या बचा के रखा ?
रचना- कृष्णावती कुमारी
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