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Krishna Rukmani Vivah Ke Baad Kya Huwa

Krishna Rukmani Vivah Ke Baad Kya Huwa

Krishna Rukmani Vivah Ke Baad Kya Huwa – कृष्ण और रुक्मणी विवाह के बाद क्या हुआ ? कृष्ण और रुकमानि के विवाह को हुवे सात महीने हो गए थे |परंतु कृष्ण ने रुक्मणी के महल में प्रवेश नहीं किया था |आइये निम्नवत इस लेख में जानते हैं कि विवाह के बाद आखिर क्या हुआ जिसे रुक्मणी को अधिकार की भी लालसा नही थी |

What happened To Krishn And Rukamani After Married

अधिकार नहीं चाहिए

नव वधू रुक्मणी को द्वारिका में आए सात माह हो गए थे |कृष्ण  ने वधू के महल में प्रवेश तक नहीं किया था |रुक्मणी प्रति दिन इंतजार करती थी ,शुबह से शाम तक दिन से रात तक |परंतु कृष्ण उनके महल में नहीं आते थे |प्रति दिन की तरह कृष्ण भी अपने कक्ष में बेचैनी से इधर उधर टहल रहे थे |

अचानक माता देवकी कि आवाज सुनाई पड़ी – पुत्र|”  ”आप !”कृष्ण के लिए अप्रत्याशित था माता का इस प्रकार का आगमन| ” रात्रि के इस प्रहर में यहाँ ? कोई गंभीर समस्या है क्या ? हाँ पुत्र , समस्या गंभीर न होती तो रात्रि के इस प्रहर में क्यों आती |” कृष्ण ने देवकी जी को बैठा दिया और स्वयम उनके पैरों के पास बैठ गए |बोलिए माते, कृष्ण के होते हुवे उनकी माता को क्या चिंता ,यह तो मेरे लिए लज्जा की  बात है |कृष्ण अपनी माता के लिए क्या कर सकता है ?  आदेश करें |

”पुत्र , सात माह हो गए तुम नव बधू के महल ‘……………|संकोच वश शब्द अधूरे रह गए | कृष्ण अपराधी की  तरह शिर झुकाये ,माता के चरणों में बैठे थे |उनके नेत्रों से अश्रु की धाराएँ उनके कोमल कपोलों को भिगोने लगी |जिन्हें सारी दुनिया पूजती है ,उस पुत्र की व्यथा से देवकीजी भी ब्याकुल हो उठी | ”बोलो पुत्र ,किस पीड़ा से मेरा पुत्र व्यथित है? परंतु कृष्ण कुछ नही माँ कहके मौन हो गए |

कृष्ण ने माता देवकी से कभी अपनी व्यथा कहे ही नहीं थे |अपनी निश्छलता तो ‘ब्रजभूमि ‘में ही छोड़ आए थे |फिर अपनी व्यथा देवकीजी के पास उड़ेलकर हल्का कैसे हो सकते थे ? अब वह ब्रज के नटखट लल्ला नहीं थे |अब वे द्वारिकाधीश वसुदेव कृष्ण थे |जिनकी सर्वत्र पूजा होती थी |अपनी व्यथा को समेटकर सर्वत्र कल्याण के लिए जीना ही उनका परम कर्तव्य और धर्म था | वे सबको देना जानते थे लेना उनके विरुद्ध में था |अभी मैया यशोदा होती तो उनके गोद में सिर रखकर सब कुछ कह देते |

कुछ पल के लिए यशोदा मैया मान लो –

What happwned to Krishn and Rukamani after married?

बताओ पुत्र माना कि मैं यशोदा नहीं हूँ और नहीं बन पाऊँगी |लेकिन कुछ पल के लिए ही सही मुझे यशोदा मैया मान लो|” इतना सुनते ही ,पता नहीं देवकीजी के शब्दों का जादू था या कृष्ण की  सहन शक्ति टूट गई थी| कृष्ण सब कुछ कहते चले गए |” कैसे जाऊँ माँ ,वो राधा नहीं है जिसके पास जाया करता था ,जिससे मिलने के लिए व्याकुल रहता था |सारी गोपियां,ग्वाल मुझे पाना चाहते थे , लेकिन मैं तो राधे की  एक हल्की सी मुस्कान का मोहताज रहा करता था |लोक मर्यादा सब उसके सामने व्यर्थ थे मेरे लिए |हमारे निश्छल संबंध का कोई नाम नहीं था |

लेकिन यह भी सच है की हर संबंध ,सारा प्रेम हम दोनों में समाहित था |बस एक दूसरे को चाहना ,एक दूसरे से कुछ न चाहना |हम दोनों राधेश्याम और राधाकृष्ण थे |हम दोनों ने अपनी संपूर्णता से एक दूसरे को चाहा है |अब क्या करूँ रुक्मणी के पास जाकर ? रुक्मणी ने स्वयम ब्राहमण द्वारा स्वयंबर में आने और अपने उद्धार का निमंत्रण न भिजवाया होता तो मैं कभी नही जाता | आजीवन राधा से दूर रहकर भी राधा का ही रहता |”यह सुनकर माता देवकी कहती हैं ,इतना तड़पता है तो चला क्यों नही जाता ,जाकर मिल आ सबसे जा |

कृष्ण के जीवन का सबसे बड़ा रहस्य

कृष्ण के अधरों पर एक पीड़ा भरी मुस्कान आई और चली गई |यह तड़पना तो मेरी साँसों के साथ जाएगा |मैं वापस नहीं जा सकता माँ |” क्यों पुत्र ? तब कृष्ण ने अपने जीवन का सबसे बड़ा रहस्य को माता देवकी के सामने प्रकट किया | जानती हो माँ, राधा ने हमेशा मुझे आगे बढ्ने को कहा है |मथुरा आते समय सब व्याकुल थे ,लेकिन यमुना किनारे राधा जब मुझसे मिलने आईं तो उसने मुझसे कहा:मुझे और इस ब्रज मण्डल को भूल जाना |हमने जगत के कल्याण के लिए तुम्हें विश्व को दान कर दिया है |कभी यहा वापस मत आना श्याम |तुम्हें बहुत आगे बढ़ाना है |पीच्छे देखकर आगे चलने वाले ठोकर खाकर गिरते हैं और मेरा प्राणेश्वर ठोकर खाकर गिरने के लिए नहीं ,गिरते हुवे को उठाने के लिए बना है |जाओ विश्व व्यापी ,युगांतर व्यापी, किर्ति अर्जित करो |जानती हो माँ ,एक बूंद आंसू  उसके आंखो में नहीं था |

.कृष्ण ने मुरली बाजाना क्यों छोड़ा –

देवकीजी ने पूछा: ऐसा कैसे हो सकता है पुत्र ? माते ,राधा जानती थी कि यदि उसके आंखो में एक भी आँसू आ गया  तो ,उसके प्रेम में आकंठ डूबा,उसके आसुओं में मैं तिनके की तरह डूब जाऊंगा और अक्रूर का रथ खाली ही वापस लौट जाएगा क्योंकि कृष्ण को राधा और ब्रज से प्रिय कुछ भी नहीं है |”माता देवकी चुपचाप पुत्र कृष्ण की व्यथा सुन रही थी और कृष्ण के शब्द बिखर रहे थे | मैंने उसके हाथ मे मुरली देकर कहा :इसे रख लो ,अब किसके लिए बजाऊँगा…….|बस अब जिस दिन समझ लूँगा की  विश्व को मेरी आवश्यकता नहीं है ,उसी दिन आखिरी बार मुरली का तान छेडूंगा…| राधा कहती है, कि तुम कहीं भी रहो तुम्हारी मुरली मेरे रोम रोम को झंकृत करने की क्षमता रखती है |इसके स्वर से मुझे ज्ञात हो जाएगा की हमारे महामिलन का समय हो गया है |

यह सुनकर माता देवकी की आंखे  नम हो गयी |विलखते  पुत्र को शांत करने के लिए उनके पास शब्द नहीं थे |” अगर एक बार चला गया तो कभी वापस लौट कर नहीं आ पाऊँगा |राधा इसे भली भाति जानती थी |इसीलिए उसने मेरे लौटने के द्वार अपने हाथों से बंद कर दिये | भले ही वापस नहीं गया ,लेकिन कभी उसे भूल भीं नहीं पाया |आपको और पिताश्री को पाकर भी मैया और बाबा का दुलार भूल नहीं पाया | सर्वजन पूजित हूँ परंतु गोपियों के उल्लाहना भरे प्यार को तरसता हूँ |

कृष्ण राधा का प्रेम –

छप्पन भोग होते हुवे चोरी के माखन का भूखा हूँ |फिर मैं अपने प्राण ,अपने अस्तित्व ,अपनी साँसे अपनी राधा को कैसे भूल जाऊँ? कैसे जाऊँ रुक्मणी के पास? मैं उसे पत्नी का अधिकार दे सकता हूँ ,दंपति के अधिकारों में भी कमी नहीं करूंगा |राजमहिषी होगी वह |लेकिन वह प्राणो का अधिकार मांगेगी ,हृदय का स्थान मांगेगी ,तो उसे कैसे दूँगा मैं ?

वह अधिकार किसी को भी मैं नहीं दूंगा| वह अधिकार मैं किसी को नहीं दे सकता |मेरे पास मेरे प्राण और हृदय है ही नहीं |वह तो राधा को दे आया हूँ……|तभी रुक्मणी ने कृष्ण के चरणों में अपना मस्तक रख दिया |”मैं रुक्मणी हूँ नाथ “|आपने भले हीं मेरी कामना नहीं किया हो ,लेकिन मैंने तो अपना पूरा जीवन आपके लिए जिया है |आपके चरणों में छोटा सा स्थान भी हमारा सौभाग्य है |आपके साथ मेरा नाम जुड़ जाना ही मेरे लिए पर्याप्त है |

कृष्ण पत्नी का सम्मान देकर ही आपने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है |अब कोई आकांक्षा शेष नहीं है प्रभु |आपकी हृदयेश्वरी बनने का मेरे मन में कभी भी विचार नहीं आएगा|लेकिन इन चरणों की पूजा से वंचित मत कीजिये |राधेश्याम अखंड हैं और अखंड रहेंगे |रुक्मणी या कोई भी उस स्थान का स्पर्श नहीं कर पायेंगी|”

रुक्मणी तुम ….|कृष्ण के साथ देवकी भी हतप्रभ रह गई |हाँ राज माता मैं द्वारिकाधीश से यहीं कहने आई थी कि मुझे कोई अधिकार नहीं चाहिए |मुझे लेकर अपने मन में कोई ग्लानि या कुंठा न रखें |मैं उनके हृदय का स्थान कभी नहीं चाहूँगी, नहीं कभी मांगूँगी |” कक्ष में नीरवता यानि खामोशी छा गई| फिर देवकीजी के कदम धीरे धीरे कक्ष से दूर होते चले गए |

साथियों ,प्रेम से जब भगवान भी अछूते नहीं रहें तो मनुष्य कैसे वंचित रह सकता |

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