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महामारी पर कविता

महामारी पर कविता|Poem on pandemic

महामारी पर कविता- वो कहते है ना कि, जो दूसरों के लिए गढा खोदता है वह खुद ही गढे में गिरता है। लेकिन यह कहावत बिल्कुल अलग व्या करने लगी I यहां , हम तो गिरें ही ,सारी दुनिया को भी  गिरायेंगे। हालात कुछ  ऐसे ही हुई।

आज पूरे विश्व में मानव द्वारा बनाया गया वायरस अपना पैर पसार लिया है I सारा संसार इस आग में धूं धूं करके जल रहा है। यहां तक कि दुनिया का सबसे बेहतरीन चिकित्सकीय संसाधनों वाला देश इस वायरस के आगे घुटने टेक दिया है।लोग दम तोड़ रहे है लाशों से श्मशान घाट भरा हुआ है।चारों तरफ रुदन की चित्कार सुनाई दे रही है l

जहाँ अपने अपनों को सहारा देते है, आज अपने ही सहारा देने के बजाय  वायरस से ग्रस्त व्यक्तियों से मजबूरन दूरियां रख रहे हैं I वहीं चिकित्सक अपनी जान की परवाह किए बिना इलाज कर रहे है। परन्तु  संसाधनों की कमी कितने साथियों को हमसे छिन लिया ! यह असहनीय पीड़ा सहा नहीं जा रहा है।

अपना खून हमसे दूर है…। भय सता रहा है…..। हृदय व्यथित है……! पर मैं कुछ नहीं कर पा रही हूँ……! बस भगवान के सामने याचना कर रही हूँ ! इस मुश्क़िल घड़ी में यह लेखनी ही सहारा है जो व्यथित हृदय को शकून दे रही है। मन की व्यथा को कम कर रही है।

इस मुश्किल घड़ी में सभी सकारात्मक रहें । अपने आराध्य को याद करें। व्यथित हृदय से   कुछ शब्दों को कविता का रूप दी हूं,जिसे आप सभी के समक्ष व्यक्त कर रही हूं,जो निम्नवत है। आप सभी का आशीर्वाद अपेक्षित है।

                                                                      कविता

हालात अजब सा हुआ समझ नहीं आता l

इतना सूक्ष्म है चक्र- कुचक्र  नज़र नहीं आता।

ऐसी उलझन में उलझे हम समझ नहीं कोई  पाता।

बेचैन हैं इतना हम की कुछ रास नहीं अब आता।

कहर नहीं द्रोणिका का है,नाा तो  चक्रवात कहीं।

नहीं  ज्वालामुखी फटा है, नहीं भूकंप कहीं I

सागर भी अपने सीमा में है, ना तो बादल रोया है I

ना तो  उल्का पिंड गिरा है, नाहीं शत्रु कहर बरपाया है।

ए कैसा मंजर आया है,चहूं ओर दुख की साया है।

बिलख रहा है जग सारा, ए कैसी तेरी माया है।

कितनी सूनी गोद हो गई, कितनी मांग हुई सूनी।

उजड़ गई कितनो की बगिया, गुजर गये कितने गुनी।

चारों ओर सन्नाटा यहां, सबसे बढ़ गए फासले I

मौत  अनगिनत हो रही ,चहुंओर चित्कार के काफिले।

अपने ही जाल में फंस गया मानव ।
बना के वायरस बन गया   दानव ।
तेरी सृष्टि तड़प रही है, हे जग के रखवाले।
अब तो दूर करो नाराजगी, हे शिव  डमरूवाले।
नाव फंसी है बीच भँवर में , कछु नहीं सूझत मोको।
राह तकू मैं तेरी हे प्रभो, पार लगाओ मोको ।
धन्यवाद साथियों,
रचना- कृृष्णावती कुमारी

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