नमस्कार दोस्तों,
Bhakt dhruv ki sankshipt Katha and poem. भक्त ध्रुव की संक्षिप्त कथा और कविता
Bhakt Dhruv ki sankshipt Katha and kavita-महाराज मनु के दो पुत्र थे। जिनका नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद था। उत्तानपाद जी की दो पत्नियां थी- सुनीति और सुरुचि । परन्तु महाराज सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे।
सुनीति प्रायः उपेक्षित होने के कारण सदैव भगवान के भजन कीर्तन में अपना समय व्यतीत करती थीं।
दोनों रानियों से एक एक पुत्र थे। सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम और और सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था। एक दिन उत्तम पिता के गोद में बैठे हुए थे। यह देख उत्सुक होकर ध्रुव भी अपने पिता के गोद में बैठ गये।
यह देखकर सुरुचि ने ध्रुव को पिता के गोद से खिच कर उतार दिया और फटकारते हुए बोली- इस गोद और सिंहासन के लिए तुम्हें भगवान की आराधना करके मेरे गर्भ से जन्म लेना होगा।
सुरुचि माता के इस व्यवहार से बालक ध्रुव बहुत दुखी हुए। अपनी माता से रोते हुए पुरी घटना को सुनायें। माता सुनीति इस घटना से बहुत दुखी हुई।
और बोली-पुत्र आपकी माता ने उचित कहा। भगवान ही तुम्हें अपना अधिकार दिला सकते है।माता की वचन को मानकर मात्र पांच वर्ष का ध्रुव तप के लिए जंगल की ओर निकल पड़ा।
दोस्तों अब मैंने इन सभी परिस्थितियों को सरल भाषा में कविता का रूप दिया है ,आप सभी का प्यार और टिप्पणी अपेक्षित है।
POEM ON BHAKT DHRUV
तप करने ध्रुव चले आज,
माताजी की आग्या से ।
रहिया में मिले मुनिराज ,
भगवानजी की कृपा से।
तू नन्हा सा बालक
तेरी इच्छा क्या क्या है।
चला राह अकेले तू,
तेरे मन में दुविधा क्या है।
दीयो अपनी व्यथा बताय,
मन में पीड़ा क्या है।
तू बच्चा है छोटा-सा,
तेरी उमर अभी क्या है।
तू पांच साल का है अभी,
तुझे तप की क्या पड़ी।
ये राह आसान नहीं,
ये राह कठिन है बड़ी।
अब लौट जाओ तुम घर को,
जिद्द छोड़ो अब मानो बात।
युग बित जाते संतों के,
सफेद हो जाते है बाल।
ध्रुव बोले हे मुनीराज
दे सकें तो दें उचित सलाह।
यदि इतना नहीं कर सकते,
तो जायें अपनी राह।
सुन गद गद हुए नारद मुनी ,
तुम्हें अपना शिष्य बनाउंगा।
दीक्षा दिये बिना मैं
यहां से नहीं जाउंगा ।
ओम् नमो वासुदेवाय
नारद ने मंत्र दिया।
वृदावन में जाकर
तब ध्रुव ने तप किया।
क्या श्रद्धा क्या भक्ति,
अन जल ध्रुव त्याग दिया।
हो गये लीन ऐसे भक्ति में,
प्राण अपना रोक दिया।
पल में थम गया संसार,
चिंतन में देव पड़े।
भागे गये प्रभो के पास,
बालक है जि़द पर अड़े।
हर्षित हो प्रभो बोले,
यह नन्हा भक्त मेरा।
सिर मौर है भक्त महान
ये प्यारा भक्त मेरा।
हे देवों मत घबराओ
दर्शन देने जाता हूँ।
बैठे प्रभु गरुण वाहन पर,
पलभर में मैं आता हूँ।
बंद आँखे ध्रुव जब खोले,
शंख चक्र पद्मधारी।
भगवान स्वयं खड़े थे,
भावभीनी स्तुति संग, हो गये ध्रुव आभारी ।
हो प्रसन्न गालों पर प्रभु
शंख से स्पर्श किया।
बालक ध्रुव के मानस में
माँ शारदे को जागृत किया।
आशीष ले ध्रुव चले भवन को
पिता ने भव्य स्वागत किया।
राज पाठ देकर ध्रुव को
प्रजा समक्ष सम्मान दिया।
प्रारब्ध जब शेष हुआ,
यमराज विमान स्वयं ले आये।
पग मृत्यु के मस्तक पर धर,
हर्षित ध्रुव अविचल धाम गये।
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नोट- उतर दिशा में स्थित ध्रुव तारा आज भी उनकी अपूर्व तपस्या का साक्षी है।
धन्यवाद पाठकों,
रचना-कृष्णावती